
ड्रैगन फ्रूट की ढाल कृत्रिम शेडिंग तकनीक से बढ़ेगा उत्पादन और मुनाफा
ड्रैगन फ्रूट, जिसे वैज्ञानिक भाषा में Selenicereus spp. कहा जाता है, आज भारत के कई राज्यों में किसानों के लिए एक सुनहरा अवसर बन चुका है। महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में यह फल तेजी से लोकप्रिय हो रहा है। इसकी ऊँची बाज़ार कीमत किसानों को आकर्षित करती है, लेकिन इसकी खेती एक बड़ी समस्या से जूझ रही है—गर्मी के मौसम में सनबर्न (धूप से जलना)।
जब तापमान 35 डिग्री सेल्सियस से ऊपर चला जाता है, तो ड्रैगन फ्रूट की विशेष शारीरिक प्रकृति (CAM फिज़ियोलॉजी) उसे और भी कमजोर बना देती है। दिन के समय पौधे अपने स्टोमाटा बंद कर लेते हैं, जिससे वाष्पीकरण द्वारा ठंडक नहीं हो पाती। नतीजा यह होता है कि तेज़ धूप और गर्मी की वजह से पौधों के तने पीले पड़ जाते हैं, उनमें सड़न शुरू हो जाती है, क्लोरोफिल कम हो जाता है और उत्पादन बुरी तरह प्रभावित होता है।
पुरानी पद्धतियों की सीमाएँ
अभी तक किसान या तो पौधों को बिना सुरक्षा के छोड़ देते थे, या 50% ग्रीन नेट का सहारा लेते थे। कुछ किसान कैओलिन (Kaolin) का घोल छिड़कते थे, लेकिन यह केवल थोड़ी-सी धूप को रोक पाता था। असली समस्या यह थी कि पौधों को एक अनुकूल वातावरण नहीं मिल पाता था, जिसके कारण गर्मी का असर पूरी तरह कम नहीं हो पाता।
ICAR–NIASM का अभिनव समाधान
इस चुनौती को हल करने के लिए पुणे के बरामती स्थित ICAR–National Institute of Abiotic Stress Management (NIASM) ने 2022–23 में कृत्रिम शेडिंग तकनीक विकसित की। रिसर्च से पता चला कि काले और सफेद रंग के 50% शेड नेट, हरे नेट की तुलना में कहीं अधिक प्रभावी हैं।
इन नेट्स को लगाने का तरीका भी वैज्ञानिक है—8–10 मीटर ऊँचे आरसीसी पोल या मेटल एंगल्स पर “T” बार फिट किए जाते हैं और नेट्स को पौधों की छत्रछाया से लगभग 0.75 मीटर ऊपर लगाया जाता है। यह व्यवस्था अप्रैल–मई में की जाती है और बरसात शुरू होने के साथ ही हटा दी जाती है। इसकी लागत लगभग 1.0–1.5 लाख रुपये प्रति एकड़ आती है।
किसानों के लिए फायदे
इस तकनीक के अपनाने से ड्रैगन फ्रूट के पौधों में कई बड़े बदलाव देखे गए। छत्रछाया के नीचे तापमान 5–6 डिग्री कम हो गया और पौधों पर पड़ने वाली धूप लगभग 50% घट गई। नतीजतन, सनबर्न की समस्या 90% तक कम हो गई और रोग भी 30–40% कम दिखाई दिए।
क्लोरोफिल संरक्षित रहने से पौधे लगातार प्रकाश संश्लेषण कर पाए। फूल आने की प्रक्रिया लगभग 15 दिन पहले शुरू हुई, फल बनने की दर बढ़ी और गिरने वाले फूलों की संख्या कम हुई। सबसे बड़ी बात यह रही कि पैदावार में 40–70% की बढ़ोतरी हुई, जो लगभग 5.5–8 टन प्रति हेक्टेयर के बराबर है।
ज़मीनी असर
इस तकनीक को महाराष्ट्र के पुणे, सोलापुर, सांगली और सातारा जिलों में किसानों के खेतों पर आजमाया गया। किसानों ने बताया कि फूल आने में 12–15 दिन की तेजी आई और फल बनने की दर में 20–30% की बढ़ोतरी हुई। उन्हें साल में 1–2 अतिरिक्त फसल चक्र मिले और पैदावार पारंपरिक तरीकों की तुलना में 30% तक बढ़ गई। कीटनाशक के इस्तेमाल में भी लगभग 25% की कमी आई और कुल आय में 2–3 लाख रुपये प्रति हेक्टेयर की बढ़ोतरी हुई।
निष्कर्ष
कृत्रिम शेडिंग तकनीक न केवल ड्रैगन फ्रूट की सनबर्न समस्या का समाधान देती है, बल्कि यह उत्पादन, गुणवत्ता और किसानों की आमदनी को भी बढ़ाती है। यह तकनीक जलवायु-सहिष्णु और टिकाऊ खेती का एक उत्कृष्ट उदाहरण है, जो किसानों को ज्यादा मुनाफा कमाने और पर्यावरण-मित्र खेती करने की राह दिखाती है।
डिस्क्लेमर: यह लेख ICAR–NIASM, बरामती (पुणे) द्वारा साझा की गई जानकारी और शोध परिणामों पर आधारित है। इसका उद्देश्य केवल जानकारी प्रदान करना है। किसी भी निवेश या खेती संबंधी निर्णय से पहले स्थानीय विशेषज्ञों की सलाह लेना उचित होगा।